~ लेखक परिचय ~
लेखक :-रामधारी सिंह "दिनकर"
रामधारी सिंह दिनकर एक महान कवि, लेखक और विद्वान थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनका जन्म 30 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरिया में हुआ था। दिनकर जी ने अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति, इतिहास और समाज को व्यापक रूप से चित्रित किया है। उनकी कविताओं में देशभक्ति, सामाजिक न्याय और मानवता की भावना का सुंदर मेल देखने को मिलता है।
दिनकर जी की सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक "कुरुक्षेत्र" है, जिसमें उन्होंने महाभारत के युद्ध को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। इसके अलावा, उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में "हुंकार", "सामधेनी", और "रश्मिरती" शामिल हैं।
दिनकर जी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्म विभूषण शामिल हैं। उनकी मृत्यु 24 अप्रैल 1974 को हुई थी, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य की धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
~रामधारी सिंह "दिनकर"~

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